Wednesday, March 3, 2010

Lal Haweli


ताहिरा ने पास के बर्थ पर सोए अपने पति को देखा और एक लंबी साँस खींचकर करवट बदल ली।

कंबल से ढकी रहमान अली की ऊँची तोंद गाड़ी के झकोलों से रह-रहकर काँप रही थी। अभी तीन घंटे और थे। ताहिरा ने अपनी नाजुक कलाई में बँधी हीरे की जगमगाती घड़ी को कोसा, कमबख़्त कितनी देर में घंटी बजा रही थी। रात-भर एक आँख भी नहीं लगी थी उसकी।

पास के बर्थ में उसका पति और नीचे के बर्थ में उसकी बेटी सलमा दोनों नींद में बेखबर बेहोश पड़े थे। ताहिरा घबरा कर बैठ गई। क्यों आ गई थी वह पति के कहने में, सौ बहाने बना सकती थी! जो घाव समय और विस्मृति ने पूरा कर दिया था, उसी पर उसने स्वयं ही नश्तर रख दिया, अब भुगतने के सिवा और चारा ही क्या था!

स्टेशन आ ही गया था। ताहिरा ने काला रेशमी बुर्का खींच लिया। दामी सूटकेस, नए बिस्तरबंद, एयर बैग, चांदी की सुराही उतरवाकर रहमान अली ने हाथ पकड़कर ताहिरा को ऐसे सँभलकर अंदाज़ से उतारा जैसे वह काँच की गुड़िया हो, तनिक-सा धक्का लगने पर टूटकर बिखर जाएगी। सलमा पहले ही कूदकर उतर चुकी थी।
दूर से भागते, हाँफते हाथ में काली टोपी पकड़े एक नाटे से आदमी ने लपककर रहमान अली को गले से लगाया और गोद में लेकर हवा में उठा लिया। उन दोनों की आँखों से आँसू बह रहे थे। 'तो यही मामू बित्ते हैं।' ताहिरा ने मन ही मन सोचा और थे भी बित्ते ही भर के। बिटिया को देखकर मामू ने झट गले से लगा लिया, 'बिल्कुल इस्मत है, रहमान।' वे सलमा का माथा चूम-चूमकर कहे जा रहे थे, 'वही चेहरा मोहरा, वही नैन-नक्श। इस्मत नहीं रही तो खुदा ने दूसरी इस्मत भेज दी।'
ताहिरा पत्थर की-सी मूरत बनी चुप खड़ी थी। उसके दिल पर जो दहकते अंगारे दहक रहे थे उन्हें कौन देख सकता था? वही स्टेशन, वही कनेर का पेड़, पंद्रह साल में इस छोटे से स्टेशन को भी क्या कोई नहीं बदल सका!

'चलो बेटी।' मामू बोले, 'बाहर कार खड़ी है। जिला तो छोटा है, पर अल्ताफ की पहली पोस्टिंग यही हुई। इन्शाअल्ला अब कोई बड़ा शहर मिलेगा।'

मामू के इकलौते बेटे अल्ताफ की शादी में रहमान अली पाकिस्तान से आया था, अल्ताफ को पुलिस-कप्तान बनकर भी क्या इसी शहर में आना था। ताहिरा फिर मन-ही-मन कुढ़ी।

घर पहुँचे तो बूढ़ी नानी खुशी से पागल-सी हो गई। बार-बार रहमान अली को गले लगा कर चूमती थीं और सलमा को देखकर ताहिरा को देखना भूल गई, 'या अल्लाह, यह क्या तेरी कुदरत। इस्मत को ही फिर भेज दिया।' दोनों बहुएँ भी बोल उठीं, 'सच अम्मी जान, बिल्कुल इस्मत आपा हैं पर बहू का मुँह भी तो देखिए। लीजिए ये रही अशरफ़ी।' और झट अशरफ़ी थमा कर ननिया सास ने ताहिरा का बुर्का उतार दिया, 'अल्लाह, चाँद का टुकड़ा है, नन्हीं नजमा देखो सोने का दिया जला धरा है।'

ताहिरा ने लज्जा से सिर झुका लिया। पंद्रह साल में वह पहली बार ससुराल आई थी। बड़ी मुश्किल से वीसा मिला था, तीन दिन रहकर फिर पाकिस्तान चली जाएगी, पर कैसे कटेंगे ये तीन दिन?

'चलो बहू, उपर के कमरे में चलकर आराम करो। मैं चाय भिजवाती हूँ।' कहकर नन्हीं मामी उसे ऊपर पहुँचा आई। रहमान नीचे ही बैठकर मामू से बातों में लग गया और सलमा को तो बड़ी अम्मी ने गोद में ही खींच लिया। बार बार उसके माथे पर हाथ फेरतीं, और हिचकियाँ बँध जाती, 'मेरी इस्मत, मेरी बच्ची।'

ताहिरा ने एकांत कमरे में आकर बुर्का फेंक दिया। बन्द खिड़की को खोला तो कलेजा धक हो गया। सामने लाल हवेली खड़ी थी। चटपट खिड़की बंद कर तख्त पर गिरती-पड़ती बैठ गई, 'खुदाया - तू मुझे क्यों सता रहा हैं?' वह मुँह ढाँपकर सिसक उठी। पर क्यों दोष दे वह किसी को। वह तो जान गई थी कि हिन्दुस्तान के जिस शहर में उसे जाना है, वहाँ का एक-एक कंकड़ उस पर पहाड़-सा टूटकर बरसेगा। उसके नेक पति को क्या पता? भोला रहमान अली, जिसकी पवित्र आँखों में ताहिरा के प्रति प्रेम की गंगा छलकती, जिसने उसे पालतू हिरनी-सा बनाकर अपनी बेड़ियों से बाँध लिया था, उस रहमान अली से क्या कहती?

पाकिस्तान के बटवारे में कितने पिसे, उसी में से एक थी ताहिरा! तब थी वह सोलह वर्ष की कनक छड़ी-सी सुन्दरी सुधा! सुधा अपने मामा के साथ ममेरी बहन के ब्याह में मुल्तान आई। दंगे की ज्वाला ने उसे फूँक दिया। मुस्लिम गुंडों की भीड़ जब भूखे कुत्तों की भाँति उसे बोटी-सी चिचोड़ने को थी तब ही आ गया फरिश्ता बनकर रहमान अली। नहीं, वे नहीं छोडेंगे, हिंदुओं ने उनकी बहू-बेटियों को छोड़ दिया था क्या? पर रहमान अली की आवाज़ की मीठी डोर ने उन्हें बाँध लिया। सांवला दुबला-पतला रहमान सहसा कठोर मेघ बनकर उस पर छा गया। सुधा बच गई पर ताहिरा बनकर। रहमान की जवान बीवी को भी देहली में ऐसे ही पीस दिया था, वह जान बचाकर भाग आया था, बुझा और घायल दिल लेकर। सुधा ने बहुत सोचा समझा और रहमान ने भी दलीलें कीं पर पशेमान हो गया। हारकर किसी ने एक-दूसरे पर बीती बिना सुने ही मजबूरियों से समझौता कर लिया। ताहिरा उदास होती तो रहमान अली आसमान से तारे तोड़ लाता, वह हँसती तो वह कुर्बान हो जाता।

एक साल बाद बेटी पैदा हुई तो रहा-सहा मैल भी धुलकर रह गया। अब ताहिरा उसकी बेटी की माँ थी, उसकी किस्मत का बुलन्द सितारा। पहले कराची में छोटी-सी बजाजी की दुकान थी, अब वह सबसे बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर का मालिक था। दस-दस सुन्दरी एंग्लो इंडियन छोकरियाँ उसके इशारों पर नाचती, धड़ाधड़ अमरीकी नायलॉन और डेकरॉन बेचतीं। दुबला-पतला रहमान हवा-भरे रबर के खिलौने-सा फूलने लगा। तोंद बढ़ गई। गर्दन ऐंठकर शानदार अकड़ से ऊँची उठ गई, सीना तन गया, आवाज़ में खुद-ब-खुद एक अमरीकी डौल आ गया।

पर नीलम-पुखराज से जड़ी, हीरे से चमकती-दमकती ताहिरा, शीशम के हाथी दाँत जड़े छपर-खट पर अब भी बेचैन करवटें ही बदलती। मार्च की जाड़े से दामन छुड़वाती हल्की गर्मी की उमस लिए पाकिस्तानी दोपहरिया में पानी से निकली मछली-सी तड़फड़ा उठती। मस्ती-भरे होली के दिन जो अब उसकी पाकिस्तानी ज़िन्दगी में कभी नहीं आएँगे गुलाबी मलमल की वह चुनरी उसे अभी भी याद है, अम्मा ने हल्का-सा गोटा टाँक दिया था। हाथ में मोटी-सी पुस्तक लिए उसका तरुण पति कुछ पढ़ रहा था। घुँघराली लटों का गुच्छा चौड़े माथे पर झुक गया था, हाथ की अधजली सिगरेट हाथ में ही बुझ गई थी। गुलाबी चुनरी के गोटे की चमक देखते ही उसने और भी सिर झुका दिया था, चुलबुली सुन्दरी बालिका नववधू से झेंपझेंपकर रह जाता था, बेचारा। पीछे से चुपचाप आ कर सुधा ने दोनों गालों पर अबीर मल दिया था और झट चौके में घुसकर अम्मा के साथ गुझिया बनाने में जुट गई थी। वहीं से सास की नज़र बचाकर भोली चितवन से पति की ओर देख चट से छोटी-सी गुलाबी जीभ निकालकर चिढ़ा भी दिया था, उसने। जब वह मुल्तान जाने को हुई तो कितना कहा था उन्होंने, 'सुधा मुल्तान मत जाओ।' पर वह क्या जानती थी कि दुर्भाग्य का मेघ उस पर मंडरा रहा है? स्टेशन पर छोड़ने आए थे, इसी स्टेशन पर। यही कनेर का पेड़ था, यही जंगला। मामाजी के साथ गठरी-सी बनी सुधा को घूँघट उठाने का अवकाश नहीं मिला। गाड़ी चली तो साहस कर उसने घूंघट जरा-सा खिसकाकर अंतिम बार उन्हें देखा था। वही अमृत की अंतिम घूँट थी।
सुधा तो मर गई थी, अब ताहिरा थी। उसने फिर काँपते हाथों से खिड़की खोली, वही लाल हवेली थी उसके श्वसुर वकील साहब की। वही छत पर चढ़ी रात की रानी की बेल, तीसरा कमरा जहाँ उसके जीवन की कितनी रस-भरी रातें बीती थीं, न जाने क्या कर रहे होंगे, शादी कर ली होगी, क्या पता बच्चों से खेल रहें हों! आँखे फिर बरसने लगीं और एक अनजाने मोह से वह जूझ उठी।

'ताहिरा, अरे कहाँ हो?' रहमान अली का स्वर आया और हडबड़ाकर आँखे पोंछ ताहिरा बिस्तरबंद खोलने लगी। रहमान अली ने गीली आँखे देखीं तो घुटना टेक कर उसके पास बैठ गया, 'बीवी, क्या बात हो गई? सिर तो नहीं दुख रहा है। चलो-चलो, लेटो चलकर। कितनी बार समझाया है कि यह सब काम मत किया करो, पर सुनता कौन है! बैठो कुर्सी पर, मैं बिस्तर खोलता हूँ।' मखमली गद्दे पर रेशमी चादर बिछाकर रहमान अली ने ताहिरा को लिटा दिया और शरबत लेने चला गया। सलमा आकर सिर दबाने लगी, बड़ी अम्मा ने आकर कहा, 'नज़र लग गई है, और क्या।' नहीं नजमा ने दहकते अंगारों पर चून और मिर्च से नज़र उतारी। किसी ने कहा, 'दिल का दौरा पड़ गया, आंवले का मुरब्बा चटाकर देखो।'

लाड और दुलार की थपकियाँ देकर सब चले गए। पास में लेटा रहमान अली खर्राटे भरने लगा। तो दबे पैरों वह फिर खिड़की पर जा खड़ी हुई। बहुत दिन से प्यासे को जैसे ठंडे पानी की झील मिल गई थी, पानी पी-पीकर भी प्यास नहीं बुझ रही थी। तीसरी मंज़िल पर रोशनी जल रही थी। उस घर में रात का खाना देर से ही निबटता था। फिर खाने के बाद दूध पीने की भी तो उन्हें आदत थी। इतने साल गुज़र गए, फिर भी उनकी एक-एक आदत उसे दो के पहाड़े की तरह जुबानी याद थी। सुधा, सुधा कहाँ है तू? उसका हृदय उसे स्वयं धिक्कार उठा, तूने अपना गला क्यों नहीं घोंट दिया? तू मर क्यों नहीं गई, कुएँ में कूदकर? क्या पाकिस्तान के कुएँ सूख गए थे? तूने धर्म छोड़ा पर संस्कार रह गए, प्रेम की धारा मोड़ दी, पर बेड़ी नहीं कटी, हर तीज, होली, दीवाली तेरे कलेजे पर भाला भोंककर निकल जाती है। हर ईद तुझे खुशी से क्यों नहीं भर देती? आज सामने तेरे ससुराल की हवेली है, जा उनके चरणों में गिरकर अपने पाप धो ले। ताहिरा ने सिसकियाँ रोकने को दुपट्टा मुँह में दबा लिया।

रहमान अली ने करवट बदली और पलंग चरमराया। दबे पैर रखती ताहिरा फिर लेट गई। सुबह उठी तो शहनाइयाँ बज रही थीं, रेशमी रंग-बिरंगी गरारा-कमीज अबरखी चमकते दुपट्टे, हिना और मोतिया की गमक से पूरा घर मह-महकर रहा था। पुलिस बैंड तैयार था, खाकी वर्दियाँ और लाल तुर्रम के साफे सूरज की किरनों से चमक रहे थे। बारात में घर की सब औरतें भी जाएँगी। एक बस में रेशमी चादर तानकर पर्दा खींच दिया गया था। लड़कियाँ बड़ी-बड़ी सुर्मेदार आंखों से नशा-सा बिखेरती एक दुसरे पर गिरती-पड़ती बस पर चढ़ रही थीं। बड़ी-बुढ़ियाँ पानदान समेटकर बड़े इत्मीनान से बैठने जा रही थीं और पीछे-पीछे ताहिरा काला बुर्का ओढ़कर ऐसी गुमसुम चली जा रही थी जैसे सुध-बुध खो बैठी हो। ऐसी ही एक सांझ को वह भी दुल्हन बनकर इसी शहर आई थी, बस में सिमटी-सिमटाई लाल चुनर से ढ़की। आज था स्याह बुर्का, जिसने उसका चेहरा ही नहीं, पूरी पिछली जिन्दगी अंधेरे में डुबाकर रख दी थी।

'अरे किसी ने वकील साहब के यहां बुलौआ भेजा या नहीं?'
बड़ी अम्मी बोलीं ओर ताहिरा के दिल पर नश्तर फिरा।
'दे दिया अम्मी।' मामूजान बोले, 'उनकी तबीयत ठीक नहीं है, इसी से नहीं आए।'
'बड़े नेक आदमी हैं' बड़ी अम्मी ने डिबिया खोलकर पान मुंह में भरा,
फिर छाली की चुटकी निकाली और बोली, 'शहर के सबसे नामी वकील के बेटे हैं पर आस न औलाद। सुना एक बीवी दंगे में मर गई तो फिर घर ही नहीं बसाया।'

बड़ी धूमधाम से ब्याह हुआ, चांद-सी दुल्हन आई। शाम को पिक्चर का प्रोग्राम बना। नया जोड़ा, बड़ी अम्मी, लड़कियाँ, यहाँ तक कि घर की नौकरानियाँ भी बन-ठनकर तैयार हो गई। पर ताहिरा नहीं गई, उसका सिर दुख रहा था। बे सिर-पैर के मुहब्बत के गाने सुनने की ताकत उसमें नहीं थी। अकेले अंधेरे कमरे में वह चुपचाप पड़ी रहना चाहती थी - हिन्दुस्तान, प्यारे हिन्दुस्तान की आखिरी साँझ।
जब सब चले गए तो तेज बत्ती जलाकर वह आदमकद आईने के सामने खड़ी हो गई। समय और भाग्य का अत्याचार भी उसका अलौकिक सौंदर्य नहीं लूट सका। वह बड़ी-बड़ी आँखें, गोरा रंग और संगमरमर-सी सफेद देह

-- कौन कहेगा वह एक जवान बेटी की माँ है? कहीं पर भी उसके पुष्ट यौवन ने समय से मुँह की नहीं खाई थी। कल वह सुबह चार बजे चली जाएगी। जिस देवता ने उसके लिए सर्वस्व त्याग कर वैरागी का वेश धर लिया है, क्या एक बार भी उसके दर्शन नहीं मिलेंगे? किसी शैतान-नटखट बालक की भाँति उसकी आँखे चमकने लगीं।

झटपट बुर्का ओढ़, वह बाहर निकल आई, पैरों में बिजली की गति आ गई, पर हवेली के पास आकर वह पसीना-पसीना हो गई। पिछवाड़े की सीढ़ियाँ उसे याद थीं जो ठीक उनके कमरे की छोटी खिड़की के पास अकर ही रुकती थीं। एक-एक पैर दस मन का हो गया, कलेजा फट-फट कर मुंह को आ गया, पर अब वह ताहिरा नहीं थी, वह सोलह वर्ष पूर्व की चंचल बालिका नववधू सुधा थी जो सास की नज़र बचाकर तरुण पति के गालों पर अबीर मलने जा रही थी। मिलन के उन अमूल्य क्षणों में सैयद वंश के रहमान अली का अस्तित्व मिट गया था। आखिरी सीढ़ी आई, सांस रोककर, आँखे मूँद वह मनाने लगी, 'हे बिल्वेश्वर महादेव, तुम्हारे चरणों में यह हीरे की अँगूठी चढ़ाऊँगी, एक बार उन्हें दिखा दो पर वे मुझे न देखें।'

बहुत दिन बाद भक्त भगवान का स्मरण किया था, कैसे न सुनते? आँसुओं से अंधी ने देवता को देख लिया। वही गंभीर मुद्रा, वही लट्ठे का इकबर्रा पाजामा और मलमल का कुर्ता। मेज़ पर अभागिन सुधा की तस्वीर थी जो गौने पर बड़े भय्या ने खींची थी।
'जी भरकर देख पगली और भाग जा, भाग ताहिरा, भाग! ' उसके कानों में जैसे स्वयं भोलानाथ गरजे।

सुधा फिर डूब गई, ताहिरा जगी। सब सिनेमा से लौटने को होंगे। अंतिम बार आँखों ही आँखों में देवता की चरण-धूलि लेकर वह लौटी और बिल्वेश्वर महादेव के निर्जन देवालय की ओर भागी। न जाने कितनी मनौतियाँ माँगी थीं, इसी देहरी पर। सिर पटककर वह लौट गई, आँचल पसारकर उसने आखिरी मनौती माँगी, 'हे भोलेनाथ, उन्हें सुखी रखना। उनके पैरों में काँटा भी न गड़े।' हीरे की अँगूठी उतारकर चढ़ा दी और भागती-हाँफती घर पहुँची।

रहमान अली ने आते ही उसका पीला चेहरा देखा तो नब्ज़ पकड़ ली, 'देखूँ, बुखार तो नहीं है, अरे अँगूठी कहाँ गई?' वह अँगूठी रहमान ने उसे इसी साल शादी के दिन यादगार में पहनाई थी।
'न जाने कहाँ गिर गई?' थके स्वर में ताहिरा ने कहा।
'कोई बात नहीं' रहमान ने झुककर ठंडी बर्फ़-सी लंबी अँगुलियों को चूमकर कहा, 'ये अँगुलियाँ आबाद रहें। इन्शाअल्ला अब के तेहरान से चौकोर हीरा मँगवा लेंगे।'

ताहिरा की खोई दृष्टि खिड़की से बाहर अंधेरे में डूबती लाल हवेली पर थी, जिसके तीसरे कमरे की रोशनी दप-से-बुझ गई थी। ताहिरा ने एक सर्द साँस खींचकर खिड़की बन्द कर दी।

लाल हवेली अंधेरे में गले तक डूब चुकी थी।

Amritghat


एक थी -अमृता। समंदर के किनारे रहती, रेत के घर बनाती। समुद्र के किनारे मिट्टी तो होती नहीं इसलिए अमृता रेत के ही घर बनाती, पर रेत में मिट्टी की तरह लोच नहीं होती, इसलिए मिट्टी के घरों की तरह अमृता के रेत के घर टिक नहीं पाते, जैसे ही भीगी रेत का पानी सूखने लगता, घर भरभराकर गिर पड़ते।
धीरे-धीरे अमृता ने घर बनाना छोड़ दिया। अब वह किनारे पर बैठकर समंदर देखा करती। सुबह समुद्र की सतह पर सूरज के लाल होते प्रकाश को देखती। दिन भर दहकते, तपते सूरज को शाम को समुद्र में ठंडा होते देखती। लहरों का उल्लास से उछलना, दौड़ना और आना-जाना देखती।
मगर अमृता ने अपनी किश्ती लहरों के हवाले कर रखी थी। लहरें जहाँ चाहतीं, अमृता चली जाती और मजे की बात जहाँ लहरें ले जातीं, अमृता को वहीं अच्छा लगने लगता। अमृता जानती थी कि लहरें एक दिन उसे जरूर क्षितिज पर ले जाएँगी, जहाँ से वह आसमान को छूकर देख सकेगी। जहाँ से वह लोचदार मिट्टी लाकर घर बना सकेगी। दिन में अमृता सूरज का ताप लेती। ताप बढ़ने लगता, तो कोई बड़ी लहर आकर अमृता को अपने आँचल से पलभर के लिए ढकती, भिगोती और लौट जाती।

रात होती तो अमृता चाँद को देखा करती, चाँद से बातें करती और चाँदनी पिया करती। वह इतनी छककर चाँदनी पीती कि उसके हृदय का खाली घट अमृत से भरने लगता, भर-भरकर छलकने लगता, तब वह समंदर में देखती, तो लगता चाँदनी का अमृत समंदर की लहरों पर बिछ गया है। जब पंद्रह दिन चाँद नहीं होता, तब अमृता अपने छलकते अमृत घट में से चाँदनी पीती और ऐसे ही जीती।

एक दिन लहरों ने अमृता को एक दूसरी किश्ती के करीब पहुँचा दिया। किश्ती अकेली न थी, उस पर सवार भी था। जब अमृता ने किश्ती-सवार को देखा, तो देखती ही रह गयी। अमृता को लगा कि चाँद, आसमान से उतरकर किश्ती-सवार के चेहरे पर आ गया है। अब वह हाथ बढ़ाकर चाँद को छू सकती है, पर अमृता को हाथ बढ़ाने की जरूरत ही न पड़ी। चाँद खुद ही अमृता के करीब आ गया और अमृता करीब आए चाँद के होंठों से चाँदनी पीने लगी। दोनों मिले और पानी पर एकदम से जाने कैसे, जरा देर को घर बन गया।

ठीक उसी वक्त आसमान में स्वाति नक्षत्र चमका। अमृता ने देखा जल की सतह पर तैर रही एक सीपी की प्रतीक्षा सार्थक हुई। उसने स्वाति की बूँद को ग्रहण किया, अपने-आपको बंद किया और डुबकी लगाती हुई समुद्र तल में जाकर बूँद को मोती का रूप देने में लग गई।

अमृता सोचने लगी काश वह भी इस सीपी-सी स्वाति की बूँद पा ले और समंदर के अतल तल में जाकर कोई मोती गढ़े।
तभी लहरों ने अमृता को किश्ती-सवार से दूर ले जाकर पटक दिया।

किश्ती-सवार उसे फिर मिले-न-मिले, यह सोचकर अमृता बेचैन होने लगी, पर तभी उसने हवा में किश्ती-सवार की आवाज सुनी, अमृता ने भी कुछ कहा, जो किश्ती सवार ने हवा में सुना। ऐसा बार-बार होने लगा। हवा दोनों के प्यार को समझती थी, इसीलिए दोनों की आवाज एक-दूसरे तक पहुँचा देती थी।

फिर किश्ती सवार ने चाँद की चाँदनी पर अमृता को प्यारभरा खत लिखा। अमृता ने भी उसी प्यार से जवाब दिया। चाँदनी भी उन्हें प्यार करती थी और उनके खत पहुँचाया करती थी। कभी हवा के जरिये, तो कभी चाँदनी पर खत लिखकर दोनों बहुत कुछ कहते, बहुत कुछ सुनते। अब अमृता आसमान के चाँद को नहीं देखती, चाँदनी नहीं पीती। अब वह सिर्फ हवा में किश्ती-सवार की बातें सुनती, चाँदनी पर लिखे उसके खत पढ़ती और उसे खत लिखती।

कभी लहरों को उन पर प्यार आता, तो वे उन दोनों को मिला देतीं, तब वे दोनों जल्दी से पानी पर घर बना लेते, फिर जल्दी ही लहरें उन्हें अलग कर देतीं। अमृता फिर अकेली हो जाती और किश्ती-सवार उस टापू पर पहुँच जाता, जहाँ उसका अपना मिट्टी का घर था, जो अमृता के बिना लोचवाली रेत के घर की तरह ताप से टूटा नहीं था। वह तो लोचदार मिट्टी से बना घर था, जो ताप पाकर और पक्का हो गया था।

पर अमृता उसके मिट्टी के घर में न जा सकती थीं और न ही जाना चाहती थी, इसके दो कारण थे - एक तो अमृता को किश्ती में पानी पर तैरते-तैरते यों ही भटकने की आदत हो गई थी, उसे यही अच्छा लगता था और दूसरे रेत के टूटते-बिखरते घर देखकर उसे मिट्टी के घर में भी जाने से डर लगता था, फिर किश्ती-सवार के मिट्टी के घर में अमृता के रहने की गुंजाइश भी तो नहीं थी। आपस में मिलना ही दोनों को इतनी पूर्णता से भर देता था कि इस बारे में उन्हें कुछ सोचने की जरूरत ही न थी। इसीलिए दोनों ने इस बारे में कुछ सोचा ही नहीं।

जब दोनों के मिलने से पानी पर घर बनता, तो अमृता इसी घर में सुख के कुछ पल पा लेती। जब लहरें उसे दूर ले जाकर पटक देतीं, तो अमृता घर बनाकर जीये हुए इन्हीं पलों को बार-बार जीती और आगे इन्हीं पलों के दुहराने की प्रतीक्षा मे रत रहती। इन्हीं दो-चार पलों के लिए अमृता सारे पल जिया करती और इंतजार के खामोश पल पिया करती।

लहरें दौड़ती हुई आतीं और अमृता को भिगो जातीं। जब वह रेत पर खड़ी होकर समंदर देखती, तो लहरें बार-बार आतीं और अमृता के पैरों के नीचे से रेत बहाकर ले जातीं। अमृता को यह भी बड़ा भला लगता। अतल, अछोर समंदर को देखते हुए अक्सर दूर क्षितिज पर उसकी आँखें टिक जाया करतीं। वहाँ आसमान का समंदर से मिल जाना, अमृता को घर का-सा आभास देता।

एक दिन अमृता को एक छोटी-सी किश्ती मिल गई। अमृता उस किश्ती पर सवार होकर समंदर में पानी पर घूमने लगी। अगर उसे कहीं जाना था, तो क्षितिज पर। जहाँ घर था जहाँ से उसे आसमान को छूकर देखना था।

Monday, November 23, 2009

shayri


1)
Dil ko kya ho gaya, khuda jaane
kyon hai aisa udaas kya jaane
keh diya maine haal aur dil apna
usko hum jaane ya khuda jaane...


2)
Badi mushkil me hu,
mein kaise izhaar karu,
tu to khushbu hain,
tujhe kaise giraftar karu....


3)
Phool khilte hain, khil kar bikhar jate hai,
Phool khilte hain, khil kar bikhar jate hain,
Yaade to dil me rehti hai, Dost mil kar bichad jate hai...


4)
Khilte hai gul yaha, khilke bikherne ko,
Milte hai dil yaha, milke bicharne ko...


5)
Chand ki raton mei sara jahaan sota hai,
Lekin Teri yaadon mei koi badnasib rota hai...


6)
Buj gaya bhi to kya apne dil ke diya,
Abh na roenge hum roshni ke liye,
Dil ka shisha jo tuta to gam kyu kare,
Dard kai hai bus zindagi ke liye...


7)
Ya khuda maaf karna tere is gunehgaar bande ko,
Jo tumhari chamatkaar me dakhil hota hai,
Sirf ye puchne ke liye aaya hu mein,
Ke kyu har raat ko mera dil rota hai...


8)
Tumhare pyaar me hamne bhohot chote khaye,
Jiska hisaab na hosake utne dard paye,
Phirbhi tere pyaar ki kasam khake kehtahu,
Hamare lab pe tumhare liye sirf pyaar aaye...


9)
Khuda kisiki muhabbat pe fida na kare,
Agar kare to zindagi bhar judaa na kare...


10)
Kaise kahe ke aap kitni khubsurat hai,
Kaise kahe ke hum aap pe marte hai,
Yeh to sirf mera dil hi janta hai,
Ke hum aap pe hamari jawani qurban karte hai...

Ishq Ne Tere Dil Mere Teer Gazab Ka Maara


Ishq Ne Tere Dil Mere Teer Gazab Ka Maara
Bhikar Gaya Sab Toot Gaya Dil Ho Gaya Paara Paara
Ishq Ne Tere Dil Mere Teer Gazab Ka Maara
Bhikar Gaya Sab Toot Gaya Dil Ho Gaya Paara Paara
Aaye Re Sajan Mera Baar Baar Baar Baar Gusse Mein

Sajan Mera Baar Baar Baar Baar Gusse Mein
Sajan Mera Baar Baar Baar Baar Gusse Mein

Chori Chori Saans Ki Dori Meine Tere Naam Ke Moti Daal Ke
Maala Pheri Aisi Teri Hogay Cherche Yaara Mere Haal Ke
Khabhar Huyi Mein Ho Teri Khatir
Ishq Ka Mere Kahin Hai Haasil
Sajan Mera… Sajan Mera Baar Baar Baar Baar Gusse Mein
Sajan Mera Baar Baar Baar Baar Gusse Mein
Sajan Mera Baar Baar Baar Baar Gusse Mein
Sajan Mera Baar Baar Baar Baar Gusse Mein

Baar..Baar..Baar…Baar..Baar…Baar…

Seekhe Seekhe Meine Seekhe Tevar Teri Yaari Mein Hai Khelne
Haar Haar Ke Roz Pyar Ke Khel Yaar Phir Bhi Hai Kaise Khelne
Haare Ya Jeete Sochna Kaisa
Dilon Ka Khel To Hota Hai Aisa
Sajan Mera Baar Baar Baar Baar Gusse Mein
Sajan Mera Baar Baar Baar Baar Gusse Mein
Sajan Mera Baar Baar Baar Baar Gusse Mein
Sajan Mera Baar Baar Baar Baar Gusse Mein
Ishq Ne Tere Dil Mere Teer Gazab Ka Maara
Bhikar Gaya Sab Toot Gaya Dil Ho Gaya Paara Paara
Aaye Re Sajan Mera Baar Baar Baar Baar Gusse Mein
Sajan Mera Baar Baar Baar Baar Gusse Mein
Sajan Mera Baar Baar Baar Baar Gusse Mein
Sajan Mera Baar Baar Baar Baar Gusse Mein
Sajan Mera Baar Baar Baar Baar Gusse Mein

Tuesday, October 20, 2009

भिखारी ठाकुर


बिहार के सारण जिले में छपरा शहर से लगभग दस किलोमीटर पूर्व में चिरान नामक स्थान के पास कुतुबपुर गांव में भिखारी ठाकुर का जन्म पौष मास शुक्ल पंचमी संवत् 1944 तद्नुसार 18 दिसंबर, 1887 (सोमवार) को दोपहर बारह बजे शिवकली देवी और दलसिंगार ठाकुर के घर हुआ था ।
आज भी अपनी दीन-हीन दशा पर आंसू बहाता खडा है कुतुबपुर गांव, जो कभी भोजपुर (शाहाबाद) जिले में था, पर अब गंगा की कटान को झेलता सारण (छपरा) जिले में आ गया है। इसी गांव के पूर्वी छोर पर स्थित है भिखारी ठाकुर का पुश्तैनी, कच्चा, पुराना, खपरैल का मकान।
अपने मां-बाप की ज्येष्ठ संतान भिखारी ने नौ वर्ष की अवस्था में पढाई शुरू की। एक वर्ष तक तो कुछ भी न सीख सके। साथ में छोटे भाई थे बहोर ठाकुर। बाद में गुरु भगवान से उन्होंने ककहरा सीखा और स्कूली शिक्षा अक्षर-ज्ञान तक ही सीमित रही। बस, किसी तरह टो-टाकर वह रामचरित मानस पढ लेते थे। वह कैथी लिपि में ही लिखते थे, जिसे दूसरों के लिए पढ पाना मुश्किल होता था। पर लेखन की मौलिक प्रतिभा तो उनमें जन्मजात थी। इस प्रकार, शिक्षा में वह कबीर की श्रेणी में आते हैं।
किशोरावस्था में ही उनका विवाह मतुरना के साथ हो गया। लुक-छिपकर वह नाच देखने चले जाते थे और नृत्य-मंडलियों में छोटी-मोटी भूमिकाएं भी अदा करने लगे थे। पर मां-बाप को यह कतई पसंद न था। फिर तो एक रोज गांव से भागकर वह खडगपुर जा पहुंचे। मेदिनीपुर जिले की रामलीला और जगन्नाथपुरी की रथयात्रा देख उनके भीतर का सोया हुआ कलाकार पुन: जाग उठा और गांव लौटे तो कलात्मक प्रतिभा और धार्मिक भावनाओं से पूरी तरह लैस होकर। तीस वर्ष की उम्र में उन्होंने विदेसिया की रचना की। फिर तो उन्होंने पीछे मुडकर नहीं देखा। परिवार के विरोध के बावजूद नृत्यमंडली का गठन कर वह शोहरत की बुलंदियों को छूने लगे। जन-जन की जुबान पर बस एक ही नाम-भिखारी ठाकुर! कलाकारों के कलाकार-मल्लिक जी!

वर्ष 1938 से 1962 के मध्य भिखारी ठाकुर की लगभग तीन दर्जन पुस्तिकाएं छपीं, जिन्हें फुटपाथों से खरीदकर लोग चाव से पढा करते थे। अधिकांश पुस्तिकाएं दूधनाथ प्रेस, सलकिया (हावडा) और कचौडी गली (वाराणसी) से प्रकाशित हुई थीं। नाटकों व रूपकों में बहरा बहार (विदेशिया), कलियुग प्रेम (पियवा नसइल), गंगा-स्नान, बेटी वियोग (बेटी बेचवा), भाई विरोध, पुत्र-बधु, विधवा-विलाप, राधेश्याम बहार, ननद-भौज्जाई, गबरघिंचोर आदि मुख्य हैं। लोक कलाकार भिखारी ठाकुर आश्रम, कुतुबपुर ने 1979 और 1986 में भिखारी ठाकुर ग्रंथावली के पहले तथा दूसरे खंड का प्रकाशन किया था और अब संपूर्ण रचनावली एक जिल्द में ही बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् से प्रकाशित हो चुकी है। समालोचक महेश्वराचार्य ने जहां पहले 1964 में जनकवि भिखारी ठाकुर, फिर 1978 में परिव‌िर्द्धत संस्करण भिखारी की रचना की, वहीं इन पंक्तियों के लेखक ने समालोचनात्मक मोनोग्राफ लिखा। प्रख्यात कथाकार संजीव ने भी भिखारी ठाकुर के जीवन पर आधारित सूत्रधार उपन्यास की रचना की है। मगर आलोचना-समालोचना से परे सादा जीवन, उच्च विचार की जीवंत प्रतिमूर्ति थे मल्लिक जी। रोटी, भात, सत्तू-जो भी मिल जाता, ईश्वर का प्रसाद मानकर प्रेमपूर्वक खाते थे। भोजन के बाद गुड भी। बिना किनारी की धोती, छह गज की मिरजई, सिर पर साफा और पैरों में जूता उनका पहनावा था। उनकी दिली तमन्ना भी थी-सदा भिखारी रहसु भिखारी!

10 जुलाई, 1971 (शनिवार) को चौरासी वर्ष की अवस्था में उनका निधन हुआ था। राय बहादुर का खिताब, बिहार सरकार से ताम्रपत्र, जिलाधिकारी (भोजपुर) से शील्ड, विदेसिया फिल्म से प्रसिद्धि और जनता में अभूतपूर्व लोकप्रियता मिलने के बाद भी आजीवन कोई अहम् भाव नहीं। दरवाजे के सामने जमीन पर चटाई बिछाकर बैठे रहते, अपने आपको सबसे छोटा आदमी मानकर चलते और उम्र में छोटा हो या बडा, सबका हाथ जोडकर ही अभिवादन किया करते थे। महापंडित राहुल जी ने भिखारी को जहां भोजपुरी का शेक्सपियर व अनगढ हीरा कहा था, वहीं जगदीशचंद्र माथुर ने उन्हें भरतमुनि की परंपरा का (प्रथम) लोकनाटककार माना था। मगर समीक्षक रामनिहाल गुंजन का मानना है-भिखारी अपने रूढिमुक्त और प्रगतिशील सामाजिक दृष्टिकोण के चलते भारतेंदु के ज्यादा करीब हैं, इसलिए उन्हें भोजपुरी का भारतेंदु हरिश्चंद्र कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। इसी अर्थ में उनका उचित मूल्यांकन भी करना संभव होगा।

भिखारी ने भोजपुरी को अभूतपूर्व ऊंचाई, गहराई व विस्तार दिया। खांटी माटी और जनजीवन से गहरे जुडा उनका साहित्य जनसामान्य का कंठहार बन गया तथा भोजपुरी व भिखारी-दोनों एक-दूसरे के पूरक-से हो गए। अपनी नृत्यमंडली के माध्यम से भिखारी धूमकेतु की तरह छा गए और ज्यों-ज्यों वक्त गुजरता जा रहा है, भिखारी के व्यक्तित्व-कृतित्व की चमक और बढती जा रही है। मगर आज भी उनका और उनके सृजन का सार्थक मूल्यांकन होना शेष है।
गोस्वामी तुलसीदास व कबीर की तरह यदि लोकभाषा के किसी कवि-कलाकार को संपूर्ण उत्तर भारत के जन-जन में प्रचंड लोकप्रियता मिली, तो वह थे भिखारी ठाकुर। भिखारी का अभ्युदय उस समय हुआ, जब देश की आम जनता विदेशियों की त्रासद दासता झेलने के साथ ही अज्ञानता, सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वास व रूढियों की बेडियों में बुरी तरह जकडी हुई थी। सर्वाधिक बुरी स्थिति नारियों की थी, जो खूंटे से बंधी गाय की तरह बाल विवाह, बेमेल विवाह का शिकार हो, विधवा का जीवन जीने के लिए अभिशप्त थीं। भिखारी ने अत्यंत निर्धन परिवार में जन्म लेकर न सिर्फ समाज के दबे-कुचले वर्ग का प्रतिनिधित्व किया, बल्कि मुख्य रूप से आधी आबादी की बदहाली को ही अपनी सृजनधर्मिता का विषय बनाया। वह लोकभाषा की अकूत क्षमता से बखूबी परिचित थे, तभी तो निरक्षर होने के बावजूद जन-जन तक पहुंचने के लिए उन्होंने अपनी मातृभाषा भोजपुरी में न केवल सबसे पहले लोक नाटकों का प्रभावोत्पादक प्रणयन व मंच-प्रस्तुति की, वरन लोकशैली विदेसिया के प्रवर्तक के रूप में भी प्रख्यात हुए। लोकनाटककार, जनकवि, अभिनेता, निर्देशक, सूत्रधार आदि अनेक मौलिक गुणों से संपन्न भिखारी सबसे पहले मनुष्य थे-मनुष्यता की कसौटी पर खरे उतरने वाले अप्रतिम कलाकार।

(sajna)


sajna jaye base pardes
sajna jaye base pardes
mora soona kargaye des,
mora soona kargaye des
sajna jaye base pardes

bawari main to hogayee sajan
bawari main to hogayee sajan,phirti ho main banke jogan,
phirti ho main banke jogan
jane kya kya badle bhes
jane kya kya badle bhes
sajna jaye base pardes
sajna jaye base pardes

kajano gaye kyon nagariya bheji na ab tak koi khabariyaa
kajano gaye kyon nagariya bheji na ab tak koi khabariyaa
koi lade re sandes,koi lade re sandes
sajna jaye base pardes
sajna jaye base pardes
mora soona kargaye des,
mora soona kargaye des
sajna jaye base pardes
sajna jaye base pardes